'मन का मुहल्ला' कि इसके बाहर भी एक द्वार है जहाँ लगे हैं दो किवाड़, कभी तो ये किवाड़ बंद हो जाते हैं जो किसी पुरवाई बयार की राह देखते हैं।कि बहे कोई बयार आए कोई झोंका और खड़का जाए उढ़काए किवाड़ों को। ये जैसे नाम को सार्थक कर रहे हों कि हम तो भई अपने मन के हैं जो खुलना हो तो आहट मात्र पर खुल जाएँ और जो मन न भाए तो लाख दस्तकों पर भी चुप्पा बने रहें, तो आइए आप भी मन के मुहल्ले में,
हो सकता है आपके पगचाप से ही इसका गोशा-गोशा आपका हो जाए।
Monday 14 March 2011
jisko mile tu,uski zindgi sanwer chale,ek aas ka kiran hai tera sanwla badan.[kahin padha tha]
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